भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कोहरा,शहर और हम / केशव
Kavita Kosh से
तुम
मैं
शहर
और यह कोहरा
पद्चाप से
चौंककर
लिपटता हुआ
गिर्द
ठहरा हुआ
प्रश्नचिन्ह-सा
मेरे-तुम्हारे
बीच
अनजाने में ही
हमारे
छूते जिस्म
फैले
कोहरे के इस गहन
अम्बार में
धीरे
धीरे
एक दूसरे के निकट
निकटतम
एक दूसरे में डूबते
मैंने झुककर
चूमा तुम्हें
तो कोहरा भाग खड़ा हुआ
चिंहुककर
झाड़ियाँ फुदकते
सफ़ेद खरगोश की तरह
रह गए
एक दूसरे पर झुके
सोये हुए-से
चलते
तुम और मैं
या कोहरे में मुंदा
शहर
दूर
दूर कहीं
ऊंघता हुआ
किसी सपने में
बिना पाँव चलता
स्तब्ध
मौन
बहने लगी हो मुझमें तुम
जैसे कोहरे में सरकती पवन
अब न है कोहरा
न शहर
न मैं
न तुम
रह गए हम
केवल हम
केवल हम
न रुके हुए न बीतते हुए
न सोए न जागते