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कोहरा / राजीव रंजन

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आज आस-पास के वातावरण में
कोहरा ही कोहरा छाया है।
धुंध की ऐसी मोटी चादर लिपटी है,
कि उसके अन्दर अब
जीवन अकुला रहा है।
यह अकुलाहट दिन प्रति दिन
बढ़ती ही जा रही है।
क्योंकि यह धुंध हमारी
साँसों को अपने में घोल रही है।
साँसों के साथ अब वह हमारे
अन्दर प्रविष्ट हो रही है।
और जैसे हवा में नमी घुलती है,
वैसे ही हमारी आत्मा को अपने में घोल,
भाप के रूप में वह बाहर निकल रही है।
और उस भाप ने आस-पास के
वातावरण में फैले कोहरे को
और गाढ़ा कर दिया है।
अब वह धुंध हमारे वजूद को
मिटाकर आदमी के अस्तित्व को
ही निगलना चाह रही है।
इस धुंध में अपना अस्तित्व विलीन
होने से बचाने को, आत्माविहीन इंसान
का आज भी जद्दोजहद जारी है।
क्योंकि कहीं दूर सुदूर हमें सूरज का आभास है।
पर मीलों दूर हमसे अभी उसका प्रकाश है।
जो कोहरे के चक्रव्यूह को तोड़ हम
तक आए।
वर्षों नहीं सदी बीत गयी उस
प्रकाश के इंतजार में।
और अभी सदियों का और लम्बा
इंतजार बाकी है, क्योंकि अब कोहरा
और ज्यादा घना हो गया है।