कौन इसे समझ सका? / पल्लवी मिश्रा
मकसद है क्या इसका? क्या फलसफा है जिन्दगी का?
दावे तो किए हैं कइयों ने, पर कौन इसे समझ सका?
किसी ने इसे सफर कहा, किसी ने कहा मंजिल;
किसी ने इसे भँवर कहा, किसी ने कहा साहिल;
तुम कहते हो शतरंज की बाजी, कभी जीत हुई, कभी मात हुई;
कभी बनी दोपहर यह तपती, कभी रिमझिम बरसात हुई,
किसी ने कहा यह स्वप्न है, बस नींद खुली और टूटेगा,
हम उस जहां के मुसाफिर हैं, यह जिस्म यहीं पर छूटेगा;
कहे कोई यह सत्य नहीं, उस पार है क्या, हम क्या जानें?
इस पार जो हम पर गुजर रही है, हम उसको सपना क्यों मानें?
यह तो अनमोल अमानत है, संघर्ष की एक कहानी है;
वह दुनिया तो अनदेखी है, यह जानी-पहचानी है;
इक अद्भुत अहसास है यह, आँसू है, मुस्कान कभी,
दुःख-सुख की यह आँख-मिचौनी, मुश्किल है, आसान कभी;
कभी रहस्य का पर्दा है, कभी खुली किताब है यह,
कभी चुभन काँटों की है, कभी सुर्ख गुलाब है यह;
मुश्किल इसे समझ पाना, मुश्किल इसे है समझाना,
तुम चाहे कुछ भी कह लो, नेमत खुदा की हमने माना।