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कौन नभ पर इन्द्रधनु लिखता ! / ओम निश्चल

उमड़ आए बादलों के दल
इन्द्रधनु से
सज उठा आकाश।

बहुत प्यासा था
धरा का तन
मन बहुत व्याकुल
बहुत उन्मन

लग रहा
जैसे कि यायावर
पक्षियों ने भरे हों परवाज़।

धुल गई सड़कें
शहर औ’ गांव
मिल गई आतप को
ठण्डी छांव

हो गया माहौल
ज्यों शिमला
हो रहा ऐसा मधुर अहसास।

फ्लैट्स ऊँचे
दिख रहे सुन्दर
बालकनियों में
चहकते स्वर

झाँकते बूढ़े
युवा बच्चे
गूँजता कलरव बहुत ही पास।

नील नभ का
यह विपुल कोना
झर रहा
आलोक का सोना

तनी प्रत्यंचा
कि बिखरे रंग
रोशनी का रच गया मधुमास।

सरल मन का
कुतूहल कहता
कौन नभ पर
इन्द्रधनु लिखता !

काश ऐसे ही
सजा-सँवरा
रहे यह आकाश बारहों मास।