क्या-क्या बीत रही है / माखनलाल चतुर्वेदी
मैंने मारा, हाँ मैंने ही मारा है, मारा है,
पथ से जारा बहकते युग को ललकारा है मैंने।
तुम क्या जानो, मेरे युग पर क्या-क्या बीत रही है,
सब इल्जाम मुझे स्वीकृत हैं,
किन्तु न ठहरूँगा मैं।
मुझको स्वाँग बनाने का अवकाश नहीं है साथी।
क्या साजूँ श्रृंगार कि उसमें अब कुछ स्वाद नहीं है।
परम सभ्य-सा,
सिर्फ सभ्य-सा,
या असभ्य-सा जो हूँ,
मैं न खड़ा रहा पाऊँगा, पथ जोते आँसू बोते।
मेरा ही युग है, वह कब से मुझे पुकार रहा है;
छनक दुलार रहा है, क्षण में उठ ललकार रहा है।
मेरा युग है, उसकी बातों का भी भला बुरा क्या,
वह पहरा क्यों न दे, कि जब है मेरी अग्नि परीक्षा;
जाओ उससे कहो कि मु झको
जी भर-भर कर कोसे,
उथल पुथल में किन्तु मौज से बैठे ताली देवे।
मिट्टी में रोटी ऊगी है, मिट्टी में से कपड़ा,
मिट्टी से संकल्प उठे हैं, मिट्टी से मानवता,
मिट्टी है निर्माणक तरणी, मिट्टी है बलशाली,
मिट्टी शीश चढ़ाओ, मिट्टी से बलिदान उठेंगे,
मिट्टी से हरियाते, मिट्टी के ईमान उठेंगे।
मिट्टी के वृत पर प्राणाधिक अगणित गान उठेंगे,
"मैया मैं नहिं माटी खाई" कह भगवान उठेंगे।
रचनाकाल: खण्डवा, अप्रैल--१९५६