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क्या करूंगी मैं / आकांक्षा पारे
Kavita Kosh से
देहरी पर आती
पीली धूप के ठीक बीच खड़े थे तुम
प्रखर रश्मियों के बीच
कोई न समझ सका था तुम्हारा प्रेम
पूरे आंगन में, बिखरी पड़ी थी
तुम्हारी याचना,
पिता का क्रोध
भाई की अकड़
माँ के आँसू
शाम बुहारने लगी जब दालान
मैंने चुपके से समेट लिया
गुनगुनी धूप का वो टुकड़ा
क़ैद है आज भी वो
मखमली डिबिया में
रोशनी के नन्हे सितारे वाली डिबिया
नहीं खोलती मैं
सितारे निकल भागें दुख नहीं
बिखर जाए रोशनी परवाह नहीं
गर निकल जाए
डिबिया से
तुम्हारी परछाई का टुकड़ा
तो क्या करूंगी मैं?