भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्योंकि छल से मारा कर्ण को / पंखुरी सिन्हा
Kavita Kosh से
तो लीजिए, इस अध्याय में
मैं कर्ण हूँ,
यह पढ़ाई नहीं,
यह लड़ाई है,
अस्त्रों का प्रशिक्षण नहीं,
उनका अपव्यय है,
शास्त्रों का अध्ययन नहीं,
उनकी ग़लत दीक्षा है,
यह पढ़ाई नहीं, लड़ाई है,
मेरा पुनर्जन्म है यह ।
इस बार मैं पैदा हुआ,
बग़ैर कवच और कुण्डल,
किंचित कोमल है उर मेरा,
किंचित कमज़ोर मेरा हृदय,
कुछ कम बलिष्ठ हैं भुजाएँ मेरी
और युद्ध बहुत नापाक ।
छल से मारा गया मुझे,
मैं तब भी दुश्मन के खेमे में था,
मैं अब भी दुश्मन के खेमे में हूँ,
मैं तब भी अकेला था,
मैं अब भी अकेला हूँ,
क्यूँकर छल से मारा मुझे ?
मारा तो,
पर मुझे मारने की स्वीकृति देने वाले,
उपदेश देने वाले,
स्वयं ईश्वर तक नहीं बचे
मारे गए आखेट में ।