क्यों जीता हूँ / हरिवंशराय बच्चन
आधे से ज़्यादा जीवन
जी चुकने पर मैं सोच रहा हूँ-
क्यों जीता हूँ?
लेकिन एक सवाल अहम
इससे भी ज़्यादा,
क्यों मैं ऎसा सोच रहा हूँ?
संभवत: इसलिए
कि जीवन कर्म नहीं है अब
चिंतन है,
काव्य नहीं है अब
दर्शन है।
जबकि परीक्षाएँ देनी थीं
विजय प्राप्त करनी थी
अजया के तन मन पर,
सुन्दरता की ओर ललकना और ढलकना
स्वाभाविक था।
जबकि शत्रु की चुनौतियाँ बढ कर लेनी थी।
जग के संघर्षों में अपना
पित्ता पानी दिखलाना था,
जबकि हृदय के बाढ़ बवंड़र
औ' दिमाग के बड़वानल को
शब्द बद्ध करना था,
छंदो में गाना था,
तब तो मैंने कभी न सोचा
क्यों जीता हूँ?
क्यों पागल सा
जीवन का कटु मधु पीता हूँ?
आज दब गया है बड़वानल,
और बवंडर शांत हो गया,
बाढ हट गई,
उम्र कट गई,
सपने-सा लगता बीता है,
आज बड़ा रीता रीता है
कल शायद इससे ज्यादा हो
अब तकिये के तले
उमर ख़ैय्याम नहीं है,
जन गीता है।