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क्यों नहीं बनते सीमेंट / एम० के० मधु

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रेत की तरह
क्यों भुरभुरे हो रामदहीन
क्यों नहीं बनते सीमेंट
और जोड़ते परिवार

सोचो रामदहीन
क्यों हो जाता है
तुम्हारा घोंसला तार-तार

गारे लगाते ईंट जोड़ते
चालीस पहुँच गये तुम
महल दर महल
बहुत खड़ा किये
‘राय-विला’ से
‘राव-प्लाजा’ तक
जुड़े रहे
उनकी नींव से कंगूरे तक
पर तुम रेत की रेत रहे
अपना घर-
तुम्हारा अपना घर
जब तुम लौटते हो
शुतुरमुर्ग की तरह
आंखें मूंदते हो
जब तुम देखते हो-
एक हांडी और एक चूल्हा के लिए
अपने घर में
सीता और उर्मिला का युद्ध
और लखन की तीखी जुबान
और एक लालटेन के लिए
मारा-मारी करते
तुम्हारे रामू, श्यामू
लखन का लखू, नखू
बूढ़े पिता की समझौता-वाणी
बूढ़ी माता के उलाहने स्वर

हांडी के पटके जाने पर
लालटेन के फूटने पर
थोड़ा चौंकते ज़रूर हो
फिर बन जाते हो शुतुरमुर्ग
फिर तेज़ करते हो
ट्रांजिस्टर, कान के पास
किन्तु शोर कमने के बजाय बढ़ता है
छोटा भाई छत पर डंडा पटकता है
छत का खपड़ा भरभराता है
अन्दर छत का छेद बढ़ता है
बाहर भीड़ का
शोर बढ़ता है
क्या हुआ...क्या हुआ...
भीड़ चिल्लाती है
छत भरभरा कर गिरती है
ट्रांजिस्टर टूटता है
रामदहीन का सर फूटता है
भीड़ का एक बूढ़ा बोलता है-
बेचारा रामदहीन!
शोर थोड़ा थमता है
भीड़ देख रही थी-
रेत से बने चारों खंभे
हिलते हुए, डोलते हुए
रामदहीन, तुम रेत की रेत हो
भुरभुरे, बिल्कुल भुरभुरे।