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क्रान्ति / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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हाथ में उसके हो वह दीप,
जो तिमिर भव का कर दे दूर;
स्नेह-पूरित हो जिसका अंक,
ज्योति जिसमें होवे भरपूर।
पास उसके हो वह वर बीन,
विनयमय हो जिसकी झंकार;
सुनावें विश्व-बंधुता-राग
छिड़े पर जिसके ध्वनिमय तार।
धारा जिससे होती है धन्य,
मिले उसको वह मंजुल प्यार;
चयन कर सरसभाव सुप्रसून,
रचे वह जिससे भव-हित-हार।
कांति जिसकी हो भव कमनीय,
बदन पर जिसके हो बहु शांति,
भरे हों जिसमें हितकर भाव,
भरत-भूतल में हो वह क्रांति।