क से कोयल / दुःख पतंग / रंजना जायसवाल
कक्षा में बैठे बच्चे
झाँकते हैं बार-बार बाहर
खिड़की से
सुनहरी किरणों से
चमकते हैं आम के बौर
कूक उठती है कोयल
रह-रहकर
बहता है झरना
अमराई से छनकर आती है हवा सुगंधित
खींच लेती है बच्चों को
अपनी गोद में
टूट-टूट जाता है उनका ध्यान
उनका मन भागता है
खिड़की से बाहर जहां
हवा है,आम्र मंजरियाँ हैं,धूप है
फुदकती हुई
बच्चों की इच्छाएँ हैं आतुर
चाहते हैं समाना प्रकृति की गोद में
घुल जाना हवा में
निकल जाना श्यामपट की दुनिया से
दूर
रंग रहित गंध रहित श्यामपट से
किताबों से बाहर भागते हुए देखना
बच्चों को
मोहता है मन को मेरे बचपन को भी
गुदगुदा जाता है
चाहती हूँ मैं भी टहलूँ
बाग में
भर लूँ खुली हवा
साँसों में कानों में
कलरव पक्षी का
नकल करूँ
कोयल की
बन जाऊं कोयल
कि तभी
गूँजती है डपटदार आवाज प्रिंसिपल की
रौंदती हुई
कोयल को सुगंधि को हवा को
बचपन को
सहमता है मेरा मन
बचपन
डर जाते हैं बच्चे डाँटती हूँ
डाँट के डर से
लिखने लगते हैं मेरे हाथ अनचाहे ही
‘क’से कोयल
‘आ’से आम
‘प’से पक्षी।