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खड़ा अपराधी प्रभु के द्वार / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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खड़ा अपराधी प्रभु के द्वार।
न्याय चाहता, क्षमा नहीं, दो दण्ड दोष-‌अनुसार॥-१॥
अर्थदण्ड देना चाहो तो करो स्वार्थ सब छार।
रहने मत दो कुछ भी इसके ‘अपना’-’मेरा’कार॥-२॥
कैद अगर करना चाहो तो प्रेम-बेडिय़ाँ डार।
रक्खोबाँध इसे नित निज चरणोंके कारागार॥-३॥
निर्वासित करना चाहो तो लूटो घर-संसार।
पहुँचा दो सत्वर दोषीको भव-समुद्रके पार॥-४॥
कभी न आने दो फिर वापस, मरने दो बेकार।
बह जाने दो इसे वहाँ सच्चिदानन्दकी धार॥-५॥