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खण्डहर की गन्ध / महेश उपाध्याय
Kavita Kosh से
धूप बुझे आँगन में
बावरे नयन
जाने क्यों जल गए ?
बीते दिन पास से निकल गए
जाने क्या सुलग गया
भीतर-भीतर
पर्वत-सा टूट गया
भारी जी पर
उजले त्यौहार ही
बदल गए
सन्नाटे ने जोड़ा
ऐसा सम्बन्ध
भीतर तक पैठ गई
खण्डहर की गन्ध
यादों के मुरझाते
कमल गए
धुँधले नक्षत्रों का
एक बियाबान
फैलाकर चली गई
आधी मुस्कान
गीत नए साँचे में
ढल गए