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ख़ाक हज़ारों बार हुए हो / देवी नांगरानी

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ख़ाक हज़ारों बार हुए हो
शमा पे फिर भी क्यों जलते हो

ज़िक्र ज़मीरों का न करो तुम
बेचके जिनको तुम जीते हो

जिनके लिए थे ग़ैर हमेशा
उनको अपना क्यों कहते हो

रातों को काली करतूतें
दिन में भले बनकर फिरते हो

भेद न चहरों का खुल जाये
दिन के उजालों से डरते हो

अपनी नज़र के आईने में
देखो तुम कितने बौने हो

काट के पेट सदा औरों का
ठाठ अमीरी के करते हो

देखके ये हैरान है ‘देवी’
ख़ून बहाकर ख़ुश होते हो