भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ख़्वाब : तीन / सुधीर सक्सेना
Kavita Kosh से
(गुलज़ार साहब का गीत सुनने के बाद)
बूँदें झर रही हैं
मगर क्यों है इतनी बेसुवादी-बेसुवादी रात ?
धरती पर
अभी भी बचा है स्वाद
ख़्वाब देखो तो कोई बात बने ।