भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खाल के नीचे / अजित कुमार
Kavita Kosh से
संकट के क्षण में
सियाही खड़े कर लेटी है अपने काँटे,
गुबरैला छोड़ता है दुर्गन्ध,
बिल्ली गुर्राकर फैलाती है पंजे...
इतनी हिंसा है जग में,
इतने ज़्यादा ख़तरे !
काश !
नाख़ून की एक पतली-सी झिल्ली
ढक सकती मुझे भी...
सख़्त, निर्मम इरादों,
क्रूर ठंडी निगाहों,
लगातार प्रहारों से कुछ तो बच पाता !
नाख़ून !
तुम बाहर नहीं,
अंदर की ओर बढ़ो !
घोंघों की तरह
मुझे भी ढको, मुझे मढ़ो !
ओ नाख़ून !
मेरी खाल के नीचे
बिछा दो एक अनदेखी पर्त !