खिलखिलाहट / दिनेश कुमार शुक्ल
तुम से बात करना
अब और कठिन
तुम्हारा बेटा अब नाराज़ हो सकता है
कहा तुमने
और सच ही कहा
फ़ोन काटते-काटते
तुमने फुसफुसा कर कहा
जल्दी से लिख डालो समीक्षा अब
महीनों से टालते जा रहे हो
देखती हूँ आलसी बहुत हो गए हो
झूठे कहीं के
और फिर से तुम्हारी आवाज़
निर्भय हो गई
तुम्हारी नाराज़गी के बाद आनेवाली
खिलखिलाहट में
बिल्कुल वही पुरानी वाली नदी
अब भी कल-कल करती
बह रही थी
मैं चमत्कृत था
तुम्हारी कविताओं में
छुपा तुम्हारा डर
कहीं था ही नहीं
कविता मे नदी अब भी थी
हाँ, अब वह बहुत शान्त
और विस्तार भरकर बह रही थी
उसमे सिर्फ़ बहा जा सकता था
उस पर कुछ भी लिखना
सम्भव नहीं था
वर्णमाला गले से उतारकर
कोई नदी मे फेंक
चला गया था.... अवाक !
माला बहती चली जा रही थी ...।