भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खिला गुलमुहर / ऋषभ देव शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खिला गुलमुहर जब कभी द्वार मेरे,
याद तेरी अचानक मुझे आ गई .
किसी वृक्ष पर जो दिखा नाम तेरा,
ज़िंदगी ने कहा ज़िंदगी पा गई ..
आईने ने कभी आँख मारी अगर,
आँख छवि में तुम्हारी ही भरमा गई.
चीर कर दुपहरी छांह ऐसे घिरी,
चूनरी ज्यों तुम्हारी लहर छा गई..