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खुदगर्ज़ सुबह/ राजेश चड्ढा

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मैं ठंडी-सफ़ेद और जमी हुई सुबह हूं
एक खुदगर्ज़ सुबह
उस उदास-डूबती और पिघलती हुई शाम से
मेरा कोई ताल्लुक नहीं
वो स्याह-गूंगी और सरकती हुई रात कौन है ?
मैं उसे नहीं जानती
मेरी आंखें सहरखेज़[सुबह उठने की अभ्यस्त]हैं
और ये ज़मीं उजालों की सेज है
मैनें ये बेलौस[निस्वार्थ] नतीजा निकाला है
कि मुझे शाम ने
अपनी लाल-पीली रौशनी के ...तले सम्भाला है
और रात ने मुझे अपने आंचल से निकाला है
लेकिन मैं सुबह हूं
एक खुदगर्ज़ सुबह