क्यों बैठी नाराज प्रिये तू-
खुद तो मैली की न चुनरिया!
मैं अपने घर में थी रहती,
जाने क्या तू बाहर कहती?
प्रीत-रीत से अनजानी मैं-
मन-ही-मन सब बाधा सहती!
मैं तो थी निर्दोष सारिका-
नोंक-झोंक कुछ सीख न पाया,
मुझे बुलाकर किया अचानक
जादू तेरी झुकी नजरिया!
कहाँ-कहाँ क्या चले फसाने?
टूटे दिल के लाख बहाने;
पनघट पर के भी परिरम्भन
लगते है सब अब बेगाने!
मैं खुश थी अपनी गुदरी में-
लेकिन तुमको ठीक न भाया;
चोल रंग में चोली रंग दी
बनी तभी से प्राण-पियरिया!
घर की मटकी-क्षीर न भावे,
छाछ दिखा के नाच नचावे ;
गोप-गोपियों के पहरे में-
कौन कन्हैया को समझावे?
महलों के ऐश्वर्य न भाते-
राज मार्ग भी बंद हुआ है!
खिंच रही रह-रह अंतर को-
मरघट की एकांत डगरिया!
उसी क्षितिज पर यौवन पलता-
जिस पर सूरज कभी न ढलता,
जहाँ प्रीति-घनसार अहनिर्श-
नयनों में चुपचाप पिघलता!
किसे कहूँ सूने प्राणों में-
विरहानल अविराम धधकता!
मन की चंचल चिड़ियाँ भागी-
बीत चली बदनाम उमरिया!
धीरे-धीरे दर्द ह्रदय का-
करता है संस्पर्श मलय का,
प्रेमिल-छण का दृश्य बिहँसता-
अंकित है जो विरह-प्रणय का!
पाप-पुण्य सबका है लेखा-
सब कुछ मन से सदा परेखा!
मिला न ऐसा कोई जग में–
जिसकी हो बेदाग चदरिया!!