भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खुद नै देखणौ / संजय आचार्य वरुण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अबै आंख्यां ने
देखण खातर
दरकार नीं है
किणी चीज वास्त री।
जद भी उण ने
कीं मन भावणौ
नीं दीखसी तो
बा जाणें है
के उण रै आप रै मांय भी तो
वस्योड़ी है एक दुनिया
उण रौ आप रौ संसार।
वा उण ने ही’ज देखैला
बा जाणै के
रूं रूं खड़ौ कर देवण आळौ हुवै
खुद में उतर’र
खुद ने देखणौ।