खुशबू-खुशबू / संजय पंकज
यह कैसी खुशबू-खुशबू है!
धड़कन साँसें और नजरिया
जिसमें क्या डूबू-डूबू है!
बिना लगाए शीतलता है
बाहर भीतर चंदन-चंदन
डूब गया है जिसमें मेरा
पूरा का पूरा संवेदन
चलती है दिन रात लिपट कर
रोम-रोम सूबू सूबू है!
आखिर यह कैसी खुशबू है!
चाहे मौसम जैसा भी हो
हर ओर महज हरियाली है
स्मृतियों में पीलापन छककर
चेहरे पर फिर भी लाली है
होंठों पर मुस्कान मनोहर
निखरी क्या खूबू-खूबू है!
आखिर यह कैसी खुशबू है!
इकधुन सुर इकतारा बजता
स्वर लय भी इक संधानी है
छंद गंध वन्दन जयकारे
सबके सब ही बेमानी है
चुभे हृदय में शूल न कैसे
अंतर्मन चूभू-चूभू है!
कैसी खुशबू-खुशबू है!
छोड़ हताशा फुदक रही है
पोर पोर में खंजन-आशा
खुले हृदय से बोल रहा हूँ
निर्मल निश्छल पावन भाषा
दुनियादारी से मन मेरा
जाने क्यों ऊबू-ऊबू है!
आखिर यह कैसी खुशबू है!