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खूटें सा गड़ा मन / मुकेश प्रत्यूष
Kavita Kosh से
मिले थे जब
नहीं सुने थे ग्लोबल वार्मिंग जैसे शब्द
न चिन्ता थी कि कैसे कटेगी गर्मी
जो पड़ेगी इस साल पिछली दो सदियों में सबसे ज्यादा
न जानते थे क्या होते हैं ग्रीन हाउस
फिर समझते क्या उसके उत्सर्जन और दुष्प्रभाव
सरसों के खिले फूलों ने करवा दिए थे अहसास
पाला-लाही के बीच भी बचा है बहुत कुछ
घुंघरु से बजे थे चने
और तान कर पालें उड़ी थीं नावें
पतंगों से भर गई थी छत
किलकारियों से उमग आया था रोआं एक-एक
बीते दिनों की बाते है सब
जानता हूं
खूंटे सा गड़ा मन
कूदे लाख - निकले तब ना