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खेत का दॄश्य / केदारनाथ अग्रवाल

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आसमान की ओढ़नी ओढ़े

धानी पहने
फसल घँघरिया,

राधा बन कर धरती नाची,

नाचा हँसमुख
कृषक सँवरिया ।


माती थाप हवा की पड़ती,

पेड़ों की बज
रही ढुलकिया,

जी भर फाग पखेरु गाते,

ढरकी रस की
राग-गगरिया !


मैंने ऎसा दृश्य निहारा,

मेरी रही न,
मुझे ख़बरिया,

खेतों के नर्तन-उत्सव में,

भूला तन-मन
गेह-डगरिया ।