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खेलने की उम्र / हेमन्त कुकरेती
Kavita Kosh से
कितने युगों बाद मिला
यह बक्सा
जिसमें सोये रहते थे
बचपन के खिलौने
दुनिया भर की बातें करते
दुनिया भर के खिलौने
वह अभी भी बड़ा है
मेरे हाथों के लिए
मेरे मन के लिए
वह एक तितली है
छटपटाती मेरी उँगलियों के बीच
जाने किन काले दिनों से गुज़रकर
वह मुझे देखने को ही
बैठ गया है मेरे सामने
वह मैला हो गया है
टूटने लगे हैं खिलौने
फीके हो चले हैं उनके रंग
मैं भाग नहीं रहा उनसे
मेरा डर यही है कि
उनसे खेलने की उम्र
मेरे जीवन के बक्से से निकलकर
खो गयी है कहीं
किसी दिन वह भी
मुझे मिल ही जाएगी
ठीक खिलौनों के इस बक्से की तरह.....