भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खेल / नवीन सागर
Kavita Kosh से
स्टेशन साथ कोई आया नहीं
रेल के भीतर से
हिलता बाहर मेरा हाथ अकेला ।
छूटा शहर के कई घरों में
यहाँ-वहाँ
कई शहर छोड़ता आख़िरकार
इस छोटी-सी दुनिया में रेल
जा रही है गोलाकार
हर स्टेशन से रेल में चढ़ता
उतरता हर स्टेशन पर
बस्ती की ओर जाता दिखा
जाती हुई रेल से
नहीं ! नहीं ऊबता
आने-जाने के खेल से।