खोखला आदर्शवाद / वंदना गुप्ता
ये वर्ष का सबसे नग्न समय था
जब आसमां की छाती पर जलता अलाव धधक रहा था
और धरती का सीना चाक चाक
तो क्या हुआ जो
हैवानियत के नंगे नाच पर
नहीं हुआ बवाल
ये इस समय की दरिंदगी नहीं
दरियादिली है
कसमसाओ, जलो भुनो या चीखो
समय दर्ज कर रहा है हर इबारत
अपने सुभीते से ही बदला जाता है नक्शा
फिर मौसम बदलने को जरूरी नहीं शहर बदले ही जाएँ
बेतरतीब इबारतें काफी हैं
दर्ज करने को इतिहास
तो क्या हुआ जो
जेठ की तपती धूप में कम्बल ओढ़ सो रहा है शमशान
जिंदा ज़मीर महज खोखला आदर्शवाद है आज
फिर स्त्री और देश की दशा दुर्दशा पर चिंतन कौन करे
एक प्रश्न ये भी उठाया तो जा सकता है
मगर हल के कोटर हमेशा खाली ही मिलेंगे
ये पंछियों के उड़ने और दाना चुगने का वक्त है
जाओ तुम अपना दर्शन कहीं और बखान करो
गिद्ध गिद्दा कर रहे हैं