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खोरना / भाग 6 / भुवनेश्वर सिंह भुवन

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पैहनें बढ़लै दाम तेल के,
फेरु चढ़लै भाड़ा।
जखनी मोॅन तखनिये चढ़ै,
यै थरमा के पारा॥

सरकारोॅ केॅ गरमी चढ़लै,
उड़लै सर-सर फरमान।
वाहन-टैक्स समूल जराबै,
यात्रा के अरमान॥

आरक्षण में होय बहाली,
कमकर पाबै काम।
हाथ-गौर के टूटै बन्धन,
गति जागै अविराम॥

गति जागै अविराम,
कल्पना सतरंग पंख पसारै।
जीवन के निस्तेज क्षितिज केॅ,
नव-नव स्वप्न संवारै॥

सब दिस नूपुर रुनझुन-रुनझुन,
कंगन खन-खन खनकै।
बन्द बहाली के कपाट पेॅ,
आरक्षण-धन झमकै॥

जब अम्बर में आग उठै,
चिड़िया-चुनचुन उड़ि जाय।
बाघ-सिंह भागै जंगल सें,
जब दावानल धुधुबाय॥

जान-माल के रहै न चिन्ता,
जब कोशी उमताय।
समय के तेवर जें नै समझै,
बाढ़ सम बहि जाय॥

जब कुर्सी केॅ संकट घेरे,
अभिमानी ओझराय।
असंतोष के आग न देखै,
समिधा संग जरि जाय॥

बाली पिन्ही केॅ बाहर जैभेॅ
घीची लेथौन कान।
टाका-पैसा लेॅ केॅ चलभेॅ,
मारी देथौन जान॥

झोला छिनबोॅ कोय बात नै,
छीनी ले छै कार।
बम-पेस्तौल चलाबै दिन भर,
ई असली सरकार॥

जतना चिट्ठी ऊपर भेजभेॅ,
सब पुलिस कन आबै।
पुलिस एकरा कहै शिकायत,
उनटे सबक सिखाबै॥

भगदड़ में जे भागेॅ लागलै,
वोकरोॅ करोॅ निहोरा।
बनबोॅ फेरू मुखमंत्री,
मिलथौं मंत्री-पद तोरा॥

दोसरा के दुर्गुन केॅ ज्ञानी,
साधू सदा छिपाबै।
जकरा चलतें भ्रष्टाचारी,
मंत्री आदर पाबै॥

आपना जाती के जनता केॅ,
बस एक बात समझाबोॅ।
छोड़ोॅ सब सिद्धान्त बिहारी,
जात के राज बचाबोॅ॥

दोसरोॅ पाटी तोड़ै वाला,
कोॅ रं हीरो लागै।
आपनोॅ पाटी टूटै तेॅ,
तित्थौं केॅ तित्तोॅ लागै॥

दलबदलू सें बनलोॅ पाटी,
मौसम्मी सोॅ फाँक,
रोज बदलुवां पहलू बदलै,
रोज कटाबै नाक॥

पद-पैसा के बल पर चललै,
दल-बदल व्यापार।
प्रजातंत्र के डोर रेशमी,
बान्है सें लाचार॥

स्याही-कागज के मँहगी में,
कवि-जीवन जंजाल।
बाबू बनबै सड़क सुकोमल,
लाल-गुलाबी गाल॥

लाल-गुलाबी गाल।
कहां जैतै फुटपाथी।
रक्सा-टमटम बन्द,
राजपथ लड़ते भैंसा-हाथी॥

मजनू रचतै नाच निरंतर,
रस्ता भुलतै राही।
मोॅन मगन हँसतै भुखल्हौ में,
फेकोॅ कागज-स्याही॥

उमरि-धुमरी धहरै धन चौदिस,
चातक-मोर निहारै।
कोयल फुहकै आम डाल पेॅ,
पपीहा पंख पसारै॥

पपीहा पंख पसारै,
फड़कै बाम अंग बिरहन के।
रुनझुन-रुनझुन नूपुर बाजे,
मन आकुल दुलहन के॥

मन में गूंजै मधुर रागिनी,
सकपकबै मन-वृन्दावन।
जन-जन के सन्ताप-निवारक,
बरसोॅ हे सावन-धन॥

बादल जे छुछे गरजै छै,
वोकरा सें की आस।
पानी बिना तबासलो धरती,
की करतै विश्वास॥

की करतै विश्वास,
जहां सिंगार उजरलोॅ जाय छै।
अन्न बिना कलपै छै बुतरु,
बूढ़ोॅ मरलोॅ जाय छै॥

इन्द्रासन के गद्दी पैल्हेॅ,
आबेॅ कैहनें पागल!
ई कैहनोॅ अभिशाप कि भेल्हेॅ,
बिन पानी के बादल!!

जब शिक्षित छोर तक झांपै,
बादल अन्हार के।
छल-प्रपंच के राज,
प्रशासन दुराचार के॥

उदधि उलीचै अनल,
दहै किसलय कानन के।
हिमगिरि सें निसृत ज्वाल,
जरै तुलसी आंगन के॥

हे गुरु वशिष्ठ! हे परराुराम,
वंशी कान्हां के।
विरचोॅ नित-नूतन छन्द,
राग गूँजेॅ आल्हा के॥