भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खोल दे वितान मन / शशि पाधा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छट गई है स्याह धुंध,नभ धरा के दरमियाँ
छत की मुंडेर को,छू रही हैं रश्मियाँ
हो रहा विहान मन
खोल दे वितान मन

कल की बात कल रही
आज भोर हँस रही
हवाओं के हिंडोल पे
पुष्प गंध बस रही
उड़ रही हैं दूर तक, धूप की तितलियाँ
तू भी भर उड़ान मन,खोल दे वितान मन

झूमने लगी लहर, सूर्य का पा परस
बूँद-बूँद झर रहा,ज्योति से भरा कलश
नटी सी थिरकने लगीं, मांझियों की कश्तियाँ
छेड़ कोई गान मन , खोल दे वितान मन

दूर उस पहाड़ पर दीप एक जल रहा
ओट विश्वास के, आँधियों से लड़ रहा
संग संग चल मेरे, कह रहीं पगडंडियाँ
मन की बात मान मन , खोल दे वितान मन