गंगाराम कलुण्डिया (देशभक्ति) / अनुज लुगुन
गंगाराम !
तुम कहाँ मरने वाले थे
पुलिस की गोली से
लेकिन आ धमके एक दिन
पुलिसिया दल-बल के साथ
तुम्हारी छाती पर बाँध-बाँधने,
तुम्हारी छाती-
जिसकी शिराओें में होती हैं नदियाँ
अस्थियों में वृक्षों की प्रजाति
माँस-पिण्डों में होते हैं
मौसमों के गीत
अखाड़ों की थिरकन
तुम्हारी छाती में होती है पृथ्वी
और उसकी सम्पूर्ण प्रकृति,
तुम्हारी छाती पर आए मूँग दलने
तुम्हारे ही देश के लोग ।
गंगाराम !
तुम देश के लिए हो
या देश तुम्हारे लिए
संसदीय बहसों और
अदालती फ़ैसलों में नहीं हुआ है निर्णय
जबकि तुमने तय कर लिया था कि
तुम लड़ोगे अपने देश के लिए ।
सलामी देते झण्डे के
हरेपन के लिए
तुम लड़े थे
जंगलों के लिए
जिसको सींच जाती थी पहाड़ी नदी
पहाड़ी नदी की सलामी को
बंधक बना कर रोक देना
देशभक्त सिपाही की तरह
तुम्हें कतई स्वीकार नहीं था
तुम नहीं चाहतें थे
देसाउली और सरना से उठकर
हमारे जीवन में उतर जाने वाली ठंडी हवा
उस बाँध में डूब कर निर्वात् हो जाए
उस निर्वात् को भेदने के लिए
तुम चक्रवात थे
तुमने आह्वान किया शिकारी बोंगा से
तीर का निशाने न चूके
तुमने याद किया
पुरखों का आदिम गीत
तुम्हारी आवाज़ कोल्हान में फैल गई
निकल पड़े बूढे़-बच्चें औरत सभी
धान काटती दराँती
और लकड़ी काटती कुल्हाड़ी लेकर
सदियों से बहती आ रही
अपनी धार बचाने
गंगाराम !
तुम मुर्गें की पहली बाँग थे
तुम कहाँ मरने वाले थे
पुलिस की गोली से ।