गढ़वाली दोहे / मोहित नेगी मुंतज़िर
चूणु कुडू धार कू ,बांजा पडयू घराट
गौ कु बाटू देखणु , दगड़िया तेरी बाट।
पुन्गडी पाटली सूख गिन ,खाली पड्यां गुठयार
फेडयू मां कांडा जमयां ,सड़गिन द्वार तिवार।
उत्तराखंड बणाई की , करि क्या तुमुन बिकास
चाटी पोंझी खाई की , तोड़ी हमारू बिश्वास।
गेल्या बोडी एगी अब ,फूलों कू त्योहार
फ्यूंली का फूलुन सजा , गौं का द्वार द्वार।
आंखऊँ मां सुरमा लगयूं , बणी छपेली बांद
नौ गज का धौंपेला मां , धरती मा उत्र्यु चांद।
डांडा धारूँ मां खिलयां, फ्यूंली बुराँसा फूल
पड़ना डालूं डालूं मा, यख बासंती झूल।
चेते की संग्रन्द ऐ , अर फूलदेई त्योहार
शैरी धरती फैली गी, मौलयरो रैबार।
अपणा विराणा क्वी भी हो, सब मतलब का यार
बिपदा जब भी आंदी त, सबका बाटा चार।
बचे ले पुरखों मान तू, स्वाभिमान जगो
अपणी ने पीढ़ी ते तू , अपणी बोली सीखो।
गोरु पुन्गडी बेची की, चलेगिन सब बाज़ार
गौं की माटी देखी की ,व्हैगी आज लाचार।
भारत का बाज़ार मा, कनू "मुंतज़िर "शोर
क्विइ त तुम पछ्यानी लया, नेताओं मा चोर।
लोकतंत्र कु खेल भी, बडू ही रोचक होंद
राजा सेन्दू राजभवन, परजा बैठी रोंद।
बढ़दु जांदू देश मा, केवल भरस्टाचार
लोकतंत्र की सेज़ मा, हिन्द पडयू बीमार।
दगड़ियूँ सुणी ल्या आज तुम, उत्तराखंड का हाल
जनता रोणी भाग तै, नेता मालामाल।
धारा मगरा सुखी की, बन्नगीन सब इत्तिहास
फ्रीज़ का ठंडा पानी सी, बुझाय ली अपणी प्यास।