भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गतिहीन जीवन की मतिहीन कविता / लवली गोस्वामी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हारी पाषाण सतह पर जहाँ-जहाँ भी नमी रह जाती है
रौशनी की नज़र से ओझल ज़रा सा अँधेरा बचा रहता है
हर उस जगह पिछली बारिश की स्मृति सी
मखमली हरी काई बनकर उगती हूँ मैं
मेरा जन्म एक स्मृति का अभिशाप है
जिसमें पानी और अंधकार बराबर मिले हुए हैं

कहते हैं अगर नमक को यूँ ही बेकार में ज़ाया करो
तो मरने के बाद सजा के तौर पर उसे
पलकों और बरौनियों से बीनना पड़ता है
ज़िन्दगी जीती जाती हूँ और सोचती जाती हूं
आँखों और नमक का रिश्ता
सोचती हूँ मैंने न जाने कितने महासागरों का नमक ज़ाया किया था
कि बीनने के लिए मेरी देह में हर जगह आँखें उगीं?

मेरी बाँसुरी दरक गई है लेकिन मन अबोध बालक की तरह
उसमे सुर फूँकने की कोशिश करता है
होते हैं कई सुख जो हँसाते-हँसाते रुला जाते है
होते हैं कई दुःख जो जीवन भर की हँसी चुटकियों में मसल कर
हथेलियों में एक भुरभुरी मुस्कराहट थमा जाते हैं

दुनिया जितनी दिखती है उससे अधिक अजीब है
मसलन, मौसमों को भी आता है रंगों में बात करना
गर्मियों की आग गुलमोहर और अमलताश बरसाते हैं
सर्दियों की ठिठुराती बर्फ बेला कुल के सब सफ़ेद फूल लेकर आते हैं

धूप बची रहती है अचार और पापड़ के स्वाद में
सर्दी की कंपकंपी ऊनी कपड़ों के गठ्ठर में छिपी होती है
बारिश की स्मृति सिर्फ बाढ़ नही है हरियाली भी है
बूंदे बरस कर रीत जाए तब भी बची रह जाती है
झबरे जानवरों में फ़र में
पक्षियों के पंखों की परत में
घने पेड़ों के हरे पत्तों की दराज़ों में
टपकती छतों में , टूटे छप्पर में

ताप की गठरी बना दोपहर का सूरज जब सर के ऊपर हो
तब खुद अपनी परछाई काया भेदकर
धरती में प्रवेश करने की कोशिश करती है
मैंने हर काया को कहा कि वह अपनी छाया से सावधान रहे

मैंने देखा कुछ बेहद तार्किक लोग कवियों को पीट-पीट कर मारना चाहते थे
उनका कहना था तारों के झुण्ड को कविता ने नक्षत्र बना दिया
इससे ठगों की ज्योतिषगिरी चल निकली
किसी को किसानों और राहगीरों को नक्षत्रों से होने वाली सहूलियत याद ना आयी
कविता बेचारी इतनी अतार्किक चीज़ थी
कि अपने बचाव में कोई तर्क़ न पेश कर पायी

चुप रहना मेरी मज़बूरी थी, न मेरा फैसला
मुझे कम शब्दों में बात कहने का हुनर न आया
और शब्द जमा करते-करते जवाब देने का समय निकल गया
न मैं कम थी न दुनिया
मुझे कभी घमंडी या मूर्ख समझे जाने अफसोस न हुआ
और दुनिया ने यह मानकर छुट्टी ली
कि ऑब्जेक्टिव सवालों के दौर में
यह, पैराग्राफ्स में जवाब देने वाली मूर्ख है।