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गर्मियाँ / त्रिनेत्र जोशी

गुमसुम से इस मौसम में
जब नहीं आती हवाएँ
सूखे होंठों वाली पत्तियाँ
बार-बार चोंचें खोलती चिड़ियाएँ
हरियाली पर लगी फफूँद

कोई भी नहीं आता
खिड़कियों के सामने
पंख फड़फड़ाता

उदास गुज़र जाती हैं
लड़कियाँ
और टहनियाँ
खींचती हैं साँसें

प्यास है चारों तरफ़
हाथ फैलाए

हो गया है
सोने का वक़्त

उड़ गई है नींद !