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गलतफ़हमी अपनों में / अशेष श्रीवास्तव

गलतफ़हमी अपनों में
कुछ इस तरह बढ़ती गयी
जो बात बोली ही नहीं
वो ही बार-बार सुनी गयी...

उस दीवार के क्या कहने
कठोर प्रहार दृढ़ता से सह गयी
भरोसा था बहुत अपनों पर
टूटी नहीं और मज़बूत हो गयी...

हवाओं की अपनी सियासत थी
प्यार में तो वहीं थम गयी
और नफ़रत में शिद्दत से
आँधियाँ बन दूर तक फैल गयी...

झूठी बात ज़ोर से दोहराते
सच्ची हो गयी
सच्ची बात सिसकियाँ भरती
झूठी हो गयी...

कल रात यों अचानक नींद
मेरी खुल गयी
औरों में देखी जो बुराई
ख़ुद में ही मिल गयी...

मंज़िल तलाश करते हुए
उम्र निकल गयी
उस ईश को जबसे भजा
दिल को तसल्ली मिल गयी...