भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गहरी नींद में सो सकूँ / मनीषा जैन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यही तो है जीवन उसका
वह फटे पुराने वस्त्र पहन
छुपाता है अपना शरीर
    हर रोज निकलता है काम पर
सूखी रोटी खा कर
हाथ में खुरपी / हाथ में करणी
या हाथ में रंग रोगन का डिब्बा और ब्रश
सारे दिन जुता रहता है
एक बैल की तरह

मैं देख देख कर उसके काम को
हैरान हूं उसके श्रम पर
यही तो है असली जीवन
संघर्ष से भरा
जाड़े की ठिठुरती रात में
वह दो रोटी खा, सो रहेगा
खोड़ी ही खाट पर
एक गहरी नींद उसे ले लेगी
अपने आगोश में
और हमें मुलायम, नर्म बिस्तर पर भी
नींद नहीं आती
पलक तक नहीं झपकती
पता नहीं उसका संघर्ष बड़ा है / या हमारा
अगले जन्म में हमें भी दिहाड़ी मजदूर बनाना
जिससे गहरी नींद में तो सो सकें।