ग़रीबों की होली / जयप्रकाश त्रिपाठी
बिना जंग के जैसे सीने में गोली,
ग़रीबों की होली, ग़रीबों की होली।
इधर से सलाखें, उधर से सलाखें,
सुबकते सुबकते हुईं लाल आँखें,
सिलेण्डर मिलेगा तो गुझिया बनेगी,
रखे रह गए ताख पर झोला-झोली,
ग़रीबों की होली, ग़रीबों की होली...
न हलुआ, न पूरी, मुकद्दर सननही,
थके पाँव दोनो, फटी-चीथ पनही,
लिये हाथ में अपने झाड़ू या तसला,
सुनाए किसे जोंक-जीवन का मसला,
न कुनबा, न साथी-संघाती, न टोली,
बीना आग-राखी, बिना रंग-रोली,
ग़रीबों की होली, ग़रीबों की होली...
न मखमल का कुर्ता, न मोती, न हीरा,
रटे रात-दिन बस कबीरा-कबीरा,
रहा देखता सिर्फ़ सपने पुराने,
नहीं जान पाया मनौती के माने,
मुआ फाग बोले अमीरो की बोली,
ये दिन, काँध जैसे कहारों की डोली,
ग़रीबों की होली, ग़रीबों की होली...