गाँव और शहर / भूपराम शर्मा भूप
तुम गाँव कहाये जाते हो, मैं शहर कहाया जाता हूँ।
कौन-सी वस्तु मेरी है वह जिसका कि यहाँ उपयोग न हो
कौन-सा तुम्हारा अन्न वहाँ जिसका कि यहाँ पर भोग न हो
आदान-प्रदान परस्पर बिन दोनों के पूर्ण संजोग न हो
तुम मुझमें पाए जाते हो मैं तुममें पाया जाता हूँ।
देखकर तुम्हारे साधारण परिधान यहाँ जन हँसते हैं
पर वहाँ सूट टाई मेरी लख कुत्ते भौंका करते हैं
दोनों ही एक तमाशा-सा दोनों के लिए समझते हैं
तुम यहाँ बनाये जाते हो मैं वहाँ बनाया जाता हूँ।
तुम खिंचे यहाँ पर आते हो सुनकर फ़िल्मी फैशन का स्वर
मैं मरता हूँ पनघट वाले मतवाले अल्हड़ यौवन पर
अपने-अपने से तृप्ति नहीं है असंतोष दोनों के उर
तुम यहाँ लुभाये जाते हो मैं वहाँ लुभाया जाता हूँ।
तुम कहते यहाँ लिपिस्टिक से रंजित आभा इकलौती है
गति वहाँ मचमचाती नूपुर ध्वनि देती मुझे चुनौती है
कृत्रिमता पर अधिकार नहीं 'नेचर' पर वहाँ बपौती है
तुम यहाँ हराये जाते हो मैं वहाँ हराया जाता हूँ।
देखकर यहाँ के रसगुल्ले तुम मुँह में पानी भर लाते
भुंटा-गड़री-गन्ने-होले हैं मुझे वहाँ पर ललचाते
दोनों ही दोनों के समीप हैं आकर्षित होकर जाते
तुम यहाँ बुलाये जाते हो मैं वहाँ बुलाया जाता हूँ।
सर्कसों, सिनेमाओं, पार्कों में होता यहाँ मनोरंजन
रस के कोल्हू-खलिहान-खेत रखते है वहाँ प्रफुल्लित मन
हैं यहाँ आर्केस्ट्रा वाले, गाँवों में लोकगीत गूँजन
तुम यहाँ रिझाये जाते हो मैं वहाँ रिझाया जाता हूँ।
तुम कहते हो नगरों में पढ़-लिखकर जीवन बन जाता है
मैं कहता हूँ गाँव तो निर्धनों को हर समय निभाता है
है नगर बढ़ाता आय, गाँव खर्चों के लिए घटाता है
तुम यहाँ सिखाये जाते हो मैं वहाँ सिखाया जाता हूँ।
विश्वास तुम्हें है नगरों में सब सुख स्वर्ग का लूटते हैं
मैं कहता हूँ गाँवों में तो छप्पर पर नोट सूखते हैं
दोनों को बड़ा बताने में दोनों ही नहीं चूकते हैं
तुम यहाँ बढ़ाये जाते हो मैं वहाँ बढ़ाया जाता हूँ