गाँव में मनिहारिन का आना / संदीप निर्भय
बेमौसम की तरह सिर पर गठरी लिए
चली आती है गाँव में मनिहारिन
जैसे बेमौसम आती है आँधियाँ
जैसे बेमौसम होती है बारिश
जैसे बेमौसम शरमा जाती है औरतें
गाँव की गली-गली, घर-घर के आगे
घुम रही होती है जब मनिहारिन
यह कहती हुई
' चुड़ी, मिणियाँ, मेहंदी ले लो
ले लो कांच-कांगसी बाई सा! '
तो उस वक़्त लड़कियाँ दौड़कर जाती हैं
घर की बाड़, दीवार, खिड़की की ओर
और औरतें खड़ी होकर चौक पर
घर के भीतर आने का करती हैं उसे हाथों से इशारा
मनिहारिन घर में आकर
गठरी उतारती हुई
बैठ जाती है चौक पर
फिर जल्दी-जल्दी खोलती है गठरी की गाँठें
जैसे स्कूल से घर आईं लड़की खोलती है रिबन
आस-पड़ोस की औरतें व लड़कियाँ
दौड़ी आती है मनिहारिन के पास
चारों ओर एक घेरा डालकर
देखती है ध्यान से एक-एक चीज़
लड़कियाँ खरीदती हैं
रबड़, बिंदिया और मेहंदी
बहुएँ ख़रीदती हैं
अंतर्वस्त्र, कांच-कांगसी, क्रीम
और सबसे बुज़ुर्ग महिलाएँ
पोतों-पोतियों के लिए
काजल की डिबिया ख़रीदती हुई हो जाती हैं हरी
आख़िरकार वस्तुओं का होता है मूल्य
मूल्य को लेकर खींचातानी
मुट्ठियों में भींचे पैसे निकाल कर
सब की सब कर देती हैं
हँसती हुई मनिहारिन का हिसाब-किताब
ओढ़ना सिर पर लेती हुई मनिहारिन
बातों-बातों में जचाती है
गठरी में सलीक़े से वस्तुएँ
और देती है गाँठें
जैसे रंगीन मौसम को गाँठों के साथ सिमटा जा रहा हो
और गठरी सिर पर रख दूसरी गली की ओर चल देती है
ज़रा सोचो जिस गाँव में मनिहारिन नहीं आती हैं
उस गाँव की खेजड़ियों के पत्तों पर
कहाँ ठहरती है क्षणभर के लिए ओस की बूँदें!