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गांव की मिट्टी / पंछी जालौनवी
Kavita Kosh से
वो ये समझा
नर्म ज़मीं है शायद
ग़ौर से देखा तो
पांव के छाले निकले
दर्द अहसास का
इसक़दर भी मर सकता है
नंगे पांव
मीलों का सफ़र
कोई ख़ुद अपनी सवारी पे
पैदल भी कर सकता है
अपनी वीरानियों के
हिसार में
ज़िन्दगी की राहे दुशवार में
पेट पर पत्थर बाँध के
कोई वक़्त के सांचे में
ढल सकता है
कोई यूँ भी घर से
निकल सकता है
गांव की मिट्टी
और मिट्टी की ख़ुशबू से
मुलाक़ात की ख़ातिर
चलते-चलते कोई
हमेशा के लिये
थम सकता है
कोई यूँ भी घर से
निकल सकता है॥