भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गिरबी राखलोॅ छै महाजन कन मुकद्दर हमरोॅ / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गिरबी राखलोॅ छै महाजन कन मुकद्दर हमरोॅ
लहू से जिनगी छै कत्तेॅ ई तर-ब-तर हमरोॅ
हम्में जोशोॅ में बढ़ी ऐलौं दुश्मनोॅ बीचें
आरो पीछू में छुटी गेलोॅ छै लश्कर हमरोॅ
खूब छौं न्याय तोरोॅ मोती-ओती सब तोरे
आरो हिस्सा में रेत, ढेब, समुन्दर हमरोॅ
लोहे रङ कर्रोॅ छेलै दुश्मनोॅ रोॅ माथोॅ-दिल
गेंदे नाँखी ही छेलै गुदगुदोॅ पत्थर हमरोॅ
कचकचोॅ जिनगी सें जहिया सें हमरोॅ होलोॅ छै
मौत केॅ लागलोॅ रहै छै बड़ी फिकिर हमरोॅ
हमरा पर भूख-गरीबी केरोॅ छै-ऊ रहमत
अदब में जेना झुकी गेलोॅ छै कमर हमरोॅ
है दिखाबै छौ तोहें केकरा-आपनोॅ दिल चीरी
घोर नीनोॅ में सुनती रहलोॅ छै शहर हमरोॅ
डोॅर लागै छै बहुत आबेॅ मनुक्खोॅ बीचें
दूर हटिये केॅ मशानोॅ में हुवेॅ घर हमरोॅ

-31.5.91