गीधतंत्र है या है उल्लूतंत्र / विष्णुचन्द्र शर्मा
एक ही घर है यहाँ वन में:
चील है छज्जे पर
कौए हैं नल पर
चूहे हैं नाली में
कुत्ते हैं द्वार पर!
वन में हैं पेड़ फलवान और काँटेदार
वन में है साँप और लता में फूल है
सेम के उजले फूल
मूली केनील में नहाये फूल
केले का स्वागत की मुद्रा में लाल फूल।
वन के यही अपने निवासी हैं।
वन में एक ही घर है।
घर में एक उल्लू है आँगन में
गीध है कमरे में।
दोनों की नोंक-झोंक होती है घर में।
एक दिन ग्राम पंचायत का चुनाव जीत अपने अधिकार से
उल्लू ने कहा: घर हमारा है, खाली करो!
गीध ने चूहों को पकड़ा और कुत्तों को घेरा
और साँप को फन फूत्कार कर घर के पास खड़ा किया।
बोला गीध: चूहे ने मेरा अन्न खाया है घर में।
कुत्ते ने मेरी बची हड्डी को चूसा है।
साँप मेरे पिता के समय का वाशिंदा है।
घर यह मेरा है।
तुम्हें अभ्यागत मान कर आँगन में रहने दिया मैंने।
हँसा गीध।
बोला उल्लू: गीध की दृष्टि ही होती है लूटने की!
मेरा घर लूटने का अपना यह छलछंद छोड़ो गीध!
ग्राम पंचायत में न्याय का दिन एक तै कर लें...
गीध ने टोका: पंचायत में जाने के पहले यहाँ साँप से
कौए से, चील से, फलदार वृक्षों से पूछ लो!
घर यह मेरा है।
बिजली का बिल मैं चुकाता हूँ।
राशनकार्ड कुत्ते के नाम का घर पर है।
जैसे-तैसे लालच दिखाकर थानेदार को
आपत्काल में अपने वश में किया...
बोला उल्लू: कपट-प्रेम का अपना यह दिल दिखाना किसी और को
आज ही पंचायत में वन के लठैत तुम्हें खींच कर लाएंगे।
हृदय में बसाए हुए साँप, कुत्ते, चील को ले आना वहीं
गवाह के नाते उनकी भी सुनेंगे पंच।
गीध ने कहा: संसद में, विधान सभाओं में, पंचायतों में
जगह-जगह साहबी हो रही है दास को लूटने की!
सभी मेरे मालिक हैं।
मैं अपने घर में एक कालपात्र गाड़कर
पिछले तीस साल से रहता हूँ।
कालपात्र पढ़कर पंच
फैसला करेंगे: यह मेरा ही घर है।
बोला उल्लू: मेरा है स्वभाव कुछ टेढ़ा।
एक काम है अपने घर को अपने नीचे रखना।
वही करूंगा! यह छोटी-सी संपत्त अपनी है।
पढ़ना मेरी छठी में ही नहीं पड़ा है!
तर्क का पश्चिम में दाम है,
मैं अपढ़ दाम कहाँ से लाऊँगा! उल्लू हूँ,
गीध का विधान कहाँ पाऊँगा!
बोला गीध: देखो मीत! सब दिन सब लायक हूँ। वर्षा या धूप में
यहीं सर छिपाया है! घर अपना आश्रय है। आश्रय को
छोड़ कर मैं कहाँ जाऊँगा!
घर यह मेरा है, मेरा रहेगा ही।
बहस के मुद्दे तो घर-घर में भरे हैं।
साहब मुसाहब ही बहसबाज होते हैं।
अपने राम कब्जा करने के बाद पीछे नहीं हटते हैं।
साँप, कुत्ते, कौए, चील अपने शरणागत हैं।
बिना मोल बिके अपने शरणागत को
जंगल में अकेला बेसहारा कैसे छोड़ दूँ?
सोचो मीत!
पंच अब कहाँ है न्यायवान!
सौदा है उनका निर्लज, कर्म है नीचता का
निरधन को लूटकर पंचनामा लिखना ही पेशा है!
गुणहीन पंचों के हाथ में
कैसे अपनी तीस साल से पाली हुई
जागीर छोड़ दूँ?
बोला उल्लू: कपट तुम्हारा करतब ही है ठोस, बाकी है सब पोल!
दंभ तुम्हारा ढोल ज्ञान का, बाकी है सब गोल!
इसी वेश में तीस साल से चला रहे जागीर?
क्यों अकाल मंे क्या सृगाल से बनी नहीं थी मीत!
केहरि-सा यश फैला था हर ओर!
थोड़े से तस्कर थे साथी, थोड़ी-सी थी भीड़
गीधराज! इस घर में तब भी थे वाकई गँभीर।
एक मुखौटा रोज लगाकर न्यायपाल थे,
लोकपाल थे,
इस अकाल में जंगल के तुम ही राजा थे।
वह क्या खोटा खेल गले में डोरी डाले
एक मदारी का करतब था?
बंदर के संग-साथ तुम्हारा नाता
अपनी पूजा का था केवल ढोंग?
करतब-कपट ठोस तो है यह राज!
कुत्ता, साँप, चील सब बोलो बोल:
गीधराज का घर है ढोलमपोल!
बोला गीध: उस दिन तेरे साथी नंगी झोरी लेकर पीट रहे थे उसकी!
स्वान और मैं बाहर आए! वह तस्कर था? या था तानाशाह?
दिन में उसकी कमर काट कर ही यहीं बेर के पास फेंक दी
थी क्यों तूने?
पंच गले तक धनी बने थे?
कितने लाख लूट का तूने पाया उल्लू?
तू गरीब है, दिन में तुझको धन के सपने क्यों आते हैं?
पंच सभी तेरे हैं ऋनिया?
या दारुन आशा का यह घर ही है अड्डा लूटपाट का?
एक हाथ देता है और दूसरा हाथ बढ़ा कर ले लेते हैं पंच!
यही एक है आस न्याय की तेरे उल्लू?
जब तक जल से ऊपर आकर तू उपदेशक बन जाता है?
मछली है तू लूटपाट के पंचतंत्र की?
मुदित बसा रह जल में उल्लू!!
घर मेरा है पंचों के लूटमंत्र का दारोगा हूँ!
बोला उल्लू: काला रंग छिपा लेता है पीली करनी काले मन की!
गीध! तुम्हारा जोर बड़ा है अंधकार के प्रजातंत्र में।
मैं उल्लू हूँ धन का लोभी!
तुम तो लूटपाट के धन के संन्यासी हो?
मैं सफरी हूँ जल प्रवाह का,
तुम हाथी हो प्रजातंत्र के।
मैं अक्सर सिकता में मिली पंच की चीनी का दाना
चुगता हूँ। अतिरसज्ञ है छोटी चींटी।
मैं चींटी हूँ प्रजातंत्र के लूटतंत्र की। दारोगा हो तुम हाथी से।
देखो लूटतंत्र की बाढ़ बहा कर किसे कहाँ तक ले जाती है!
घर मेरा है मिलेगा नहीं लूटपाट के पंचतंत्र में!
बोला गीध: मैं भी नंगा, तू भी लुच्चा।
नंगे-बुच्चे पंचतंत्र का कौन भरोसा?
मैं भी द्वार-द्वार कूकुर-सा पेट खलाए फिरता!
तू भी कूड़ा-घर से दाना-दाना चुगता।
अब पंचों का खालिस लूटपाट से नाता।
उल्लू आ बैठ। हम अपने घर का बँटवारा करें।
अपनी नकली असली दुनिया को पहचानें
आधे में हो पंचतंत्र! आधे में हो लूटतंत्र!!
हम दोनों का वन में घर हो आधा-आधा!!
बोला उल्लू: बड़े बड़े देशों ने लिख रहे हैं
झूठे-पक्के ऊलतंत्र के गाने।
गीध तुम्हारा तीस साल का गीधतंत्र है बड़े-बड़े देशों का अपना।
मीठा, कड़वा, तीखा, खट्टा मेरा ऊलतंत्र है।
नमक मिर्च का भल्ला तेरा गीध तंत्र है।
मैं हूँ दिन का बैरी आधे घर का।
तू है आधी रात सफर की।
हम दोनों का प्रजातंत्र है कड़वा इंद्रायण का ही फल।
बोला गीध: ऐसे लूटतंत्र का अंजन हम क्यों आँखों में ही आँजें।
ऐसे अंजन से क्यों अपनी आँखें फोड़ें-
कुत्ते, चूहे, साँप, केकड़े!
सभी बताओ ऊलतंत्र हैं? गीधतंत्र है? प्रजातंत्र के
लूटतंत्र का कौन हमारा नयातंत्र है? नये तंत्र के गाने गाओ
या अपने-अपने घर जाओ!
वन में फले वृक्ष मुस्काए! काँटेदार वृक्ष ने
काँटे मारे!
कीड़े हरी सेम में जाकर सोये।
वन में घर है। घर में उल्लू का है पहरा।
गीध सो रहा है आँगन में।
गहरा श्याम अँधेरा
उतरा वन में।