भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गीले बादल / मोहन अम्बर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पलकों में सावन बाँधे हूँ तुम गीले बादल मत भेजो।
चुभते कांटों की हेरन में मेरे दृग काफ़ी धुँधियारे,
पर अपना क्या दुखड़ा रोऊँ सँग के सौ-सौ मन दुखियारे,
वैसे गति में कुछ कमी नहीं लेकिन संशय का कहना है,
ये है मावस का पखवारा तुम अँजने काजल मत भेजो,
पलकों में सावन बाँधे हूँ तुम गीले बादल मत भेजो।
मेरी इस जिद्दी आदत ने अब तक न चन्द्रमा बुलवाया,
पर जो हाथों के बस में था वह दुर्बल दीपक जलवाया,
वैसे उजियारा संतोषी लेकिन संशय का कहना है,
जो ओट न दे, झलका मारे, तुम ऐसा आँचल मत भेजो,
पलकों में सावन बाँधे हूँ तुम गीले बादल मत भेजो।
यों तो सुख-दुख सब गाऊंगा, पर समय समझ कर गाऊंगा,
अनुभव का कथ्य न माना तो आगे चलकर पछताऊंगा,
वैसे महफिल का प्रियतम हूँ लेकिन संशय का कहना है,
जो भटका दे मेरे स्वर को तुम ऐसी पायल मत भेजो,
पलकों में सावन बाँधे हूँ तुम गीले बादल मत भेजो।