भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गुंबजों के खेल में / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
आधे हुए पौने हुए
सूरज चढ़े मीनार पर
बौने हुए
अंधी सरायों में
सफर के बाद दिन जाकर टिके
निकले सुबह से हाट में
खोटे टकों में घर बिके
फिर गुंबजों के खेल में
हैरान मृगछौने हुए
लादे हवाओं के किले
बूढ़ी सुरंगों में चले
सारे शहर में घूमकर
ठंडी गुफाओं में गले
टूटे घरौंदों की गली से
धूप के गौने हुए