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गुज़रे हैं नाग / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
लगता है
गुज़रे हैं नाग इसी घाटी से
नागों के दंशों से चिह्नित हैं
घाटी के पेड़ सभी
सुनते हैं, इन पेड़ों के नीचे
थे अमृत-कुंड कभी
आती है गंध
जले फूलों की माटी से
नागों का घाटी से होकर यों जाना
अचरज है हमें हुआ
गरुड़ों की धरती यह
इस पर थी देवों की रही दुआ
हटकर है
यह घटना पिछली परिपाटी से
नाग नदी में उतरे होंगे कल
ज़हरीली नदी हुई
सपनों के टापू पर
ज़हर-बुझी, हाँ, पूरी सदी हुई
बचे वही दिन
जो हैं बौने क़द-काठी से