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गृहप्रवेश: दो चित्र / रश्मि रेखा

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फूलों की थाली में
रन-झुन पग रखवा कर
पति-गृह में
सात दीपों से उतारी गई
नव-वधू की आरती
दीवार पर उकेरी
उसने हल्दी लगे हाथों की प्रतिलिपि
उगाये शुभ-चिन्ह
घूँ घट के भीतर से
दीपित नयनों से देखा सब
उसके दमकते चेहरे में छिप गए बचपन का
सब कुछ छूटने की पीड़ा
अंजलि में भर-भर कर लक्ष्मी सी
देर तक बाँटती रही तिल चावल
स्वीकार करती रही सहर्ष संकोच के साथ
परिजनों से मुँह=दिखाई
न जाने कबतक गूँजते रहे
उसके कानों में बधाई-गीत
न जाने कबतक चकित चपल नेत्रों से
देखती रही कभी पति को
कभी उसका घर
न जाने कबतक लहराता रहा
परिजनों के प्यार से भरा सागर

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सम्पन्न होते ही सारे अनुष्ठान
धीर्रे-धीरे बदलने लगे लोग
बदलने लगी उनकी भाषा
सौन्दर्य के मानक पर
कसे जाने लगे उसके नाक-नक्श
उपहास का पात्र हो गई उसकी रचनाये
बनती है जो बाधक घर चलाने में

आतिशबाजी सी छूटती व्यंजक भाषा ने
बर्फ़ सी ख़ामोश भाषा उपजायी
और नहीं जमने दी जड़े इस नई ज़मीन पर
अर्थशास्त्र का विषय बन गए सारे नए सम्बन्ध

केबल वनस्पतियाँ ही की जा सकती हैं
प्रत्यारोपित
संबंधों के इस नियोजित व्यापार में
नहीं बना पाई वह लड़की
कोई सेतु
उलट-पुलट गया जीवन
पिता के घर छूट गए सपने
हाशिये पर किता
बची रही फिर भी जूझती
सिर में लिए माइग्रेन का दर्द