भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गेंद (एक) / अक्षय उपाध्याय
Kavita Kosh से
रात में
माटी पर
गति को महसूस करती पड़ी है
गेंद ।
पृथ्वी के सीने पर
नाच कर
आँखें खोले तारों को अपलक निहारती
खेल की दुनिया रचती
पड़ी है
गेंद
बच्चे को खोजती
उसके नर्म पैरों की थकान सोखती
फिलहाल गेंद के स्वप्न में
बच्चा भी है
और मैदान भी
बच्चे को उसके गोल की तरफ़
ले जाने का व्यूह रचती
गेंद की दुनिया में
जीत की आकाँक्षा के साथ
बच्चा लपकता है
और इससे पहले कि वह पहली किक लगाए
गेंद
आकाश और पृथ्वी के बीच
बच्चे के लिए
सबसे सुन्दर गीत गाती
हवा में ऊपर उठती है ।