गेरुआ चांद / चंद्रभूषण
रोशनियां बहुत तेज हैं
और तुम्हारे सो जाने के बाद भी
नींद की छाती पर मूंग दलती
ये यहीं पड़ी रहती हैं
फिर भी कैसा चमत्कार कि
बची रह जाती है
सलेटी अंधेरों वाली
कोई कुहासे भरी रात
मशीनी ध्वनियां
कभी चिढ़कर तो कभी चुपचाप
चौबीसो घंटे सिर ही खाती रहती हैं
फिर भी कैसा अचरज कि
बची रह जाती है
दोनों कानों के बीच
रात के तीसरे पहर सीले पत्तों पर
महुआ टपकने की आवाज
आधी रात गए
तुम्हारी बालकनी के ऊपर
उग रहा होता है जब
नींद में डूबा गेरुआ चांद
जमीन पर सरक रहा होता है
नम घासों के सिर सहलाता
पंचर पहिए सा बेढब पवन
तब तुम्हीं कहो-
घर से इतनी दूर खींच लाई
इतनी बड़ी कामयाबियों के बाद
तुम यहां क्या कर रहे होते हो?
बुझी-बुझी सी नजर में
तेरी तला..श लिए
भटकते फिरते हैं
हम आज अपनी ला..श लिए
कोई भटकती हुई धुन
यहां अपने होने भर से चौंकाती
पहाड़ों में अटकी धुंध सी
तुम्हारे भीतर घुमड़ती है
कोई नाम गुम जाता है
कोई चेहरा बदल जाता है
आवाज भी कोई नहीं बचती
जिससे तुम्हारी पहचान हो
छब्बीस साल पहले फूटा दायां घुटना
आज ही टपकना था
खिड़की के पल्ले से सिर में बने गुम्मे पर
हाथ भी बार-बार अभी ही जाना था
'टु हेल विद यू-
आखिर किस हक से
अपने प्रेमी के सामने
तुम मुझे डांट सकती हो!'
दुख की रात याद की रात
खीझ में कह जाते हो कुछ ऐसी बात-
किसी के सामने जो कभी कही नहीं जानी
सुनो,
शीशे की सिल में पड़े बुलबुले जैसी
इस तनहा रात की बालकनी में
तुम अकेले नहीं हो
इतनी दूर से अपनी औचट नींद में
तुम्हारे ही इर्द-गिर्द घूमता
न जाने कौन से उपकार के लिए
तुम्हें शुक्रिया कहता कोई और भी है-
जिसकी आवाज मैं यहां तुमसे मुखातिब हूं