गौरनी के पत्तल तक / रश्मि रेखा
अभी-अभी जो ख़त्म हो गई है स्त्री की देह 
सामाजिक रिश्तों से इतर भी 
उससे गहरा रिश्ता था मेरा 
औरत होने का रिश्ता 
अड़तीस वर्ष तक लगातार सहेजती रही इस घर को 
अपने घर होने के अहसास में 
पत्नी और माँ के साथ-साथ 
घर के तमाम संबोधनों के अर्थ 
जीती रही चुपचाप दूसरों के हक़ में 
उसने कभी नहीं देखे खुले आसमान के सपने 
कभी नहीं चाहा कुछ घर-परिवार से अलग 
कभी-कभी उसे दी जाती अहमियत 
जब पड़ती थी बीमार 
तब की जाती पूरी तीमारदारी 
फिर लोग भूलने लगते उसकी तकलीफ़े
पृथ्वी थी वह सहती रही सबकी बातें 
चेहरे पर फैलती मुस्कान के साथ 
जिसके अपने कई उदास रंग थे 
चली गई वह आज सब कुछ छोड़ कर 
अपने उस घर को भी 
जिसने कभी उसे चैन लेने नहीं दिया 
अचानक हुए स्वप्न-भंग से 
स्तब्ध हैं लोग 
ज़रूरत की चीज़ें खोजते हुए 
दुःख के समंदर में डूबते हुए 
और वह 
कितनी शांति से सो रही है 
उत्तर सिरहाने 
अपने आँगन में 
कभी न टूटने वाली नींद में 
क्या ख़त्म होकर ही हासिल होती है 
ऐसी निश्चिन्तता 
घर का शायद ही कोई कोना या चीजें हों 
जहाँ उसकी अँगलियों के निशान न हों 
समय धीरे-धीरे इन निशानों को मिटा देगा 
तब रह जायेगी वह उस घर में 
महज हर अनुष्ठान में निकलने वाले 
गौरनी के पत्तल तक
	
	