ग्यारहवाँ पुष्प / कवि शून्य लोक में / आदर्श
मारुत के लोक से
कविवर की यात्रा
आरम्भ हुई पुष्पक विमान पर।
पिछले सबस जन्मों के
और इस जन्म के
संचित शुभ कर्मों के
फल का उदय हुआ
आज इस
पुष्पक विमान पर की गयी
आनन्दमयी यात्रा के रूप में।
विमान चलता था
मानों नहीं चलता था
सुन्दर सुख देने वाली
उसकी गति मंद मंद
पहुँच गयी थी
पास गति शून्यता के
छोटे छोटे कितने ही
उसमें झरोखे थे
पड़ते दिखलायी थे
दृश्य बड़े सुन्दर
करके शृंगार कहीं
दिव्य देवांगना कोई
चली जा रही थी
आकुलता की
उमंग लिये चेहरे पर।
कहीं कोई कामिनी
दिखलायी पड़ी
सुंदर पेड़ों की डाल पर-
पड़े हुए
झूले में झूलती।
आंखें पड़ी
ऐसी मुग्धाओं पर
दल बाँध बाँध
जो फूल बाण मारने की
सीखती थी कला।
कहीं कोई देव दिखा
विरह की वेदना से व्याकुल हो
प्रेमिका की तसवीर खींच
बार बार
आँसुओं से गीली कर
उसको मिटाता हुआ
और किस बाधा से
वह मिट जाती है
इसको भी
जान नहीं पाता हुआ।
कितने ही किन्नर, गंधर्व, यक्ष
अपनी प्रेमिकाओं साथ
रास, नृत्य, वाद्य और
संगीत की क्रीड़ा में
मस्त दिखलायी पड़े।
संध्या, निशा
उषा, प्रात के
अनेक फेरे हुए
चंद्रलोक आया तब
चाँदनी जहाँ से
सारे विश्व बीच छिटकी।
तीव्र गामी क्रमशः
हो चला विमान और
आया सूर्य लोक जहाँ
अधिपति संसार के
श्री सूर्य थे विराजते।
देव लोक में प्रवेश करने से
दिव्य दृष्टि प्राप्त कवि
देख सका दूर ही से
गौरव से, कांति से,
तेजस्विता भरा रूप
आग में तपाये हुए
सोने के पहाड़ सा
या कि एक गोला सा
प्रचंड ज्वाल-माल बीच
तप्त आभा फैला कर
किरणों के रूप में
किसी को विकास और
किसी को विनाश भी
देता हुआ
जीवन के प्यार से
सात जुते घोड़ों से
खींचे हुए रथ पर
चलता भी अचल सा
शोभा वह पा रहा था।
कवि का मन मुग्ध हुआ
देख कर उसको
जैसे देख दीपक की शिखा का
मोह बढ़ जाता है
पतंग के हृदय में।
इधर आनन्द में
मग्न कवि हो रहा था
उधर सूर्य भवन में
ऐसी परिस्थिति
तैयार होती जा रही थी
जिसका विकास
कवि कष्ट को बढ़ाने की-
ओर हुआ अग्रसर।
किसी पहरेदार ने
सूर्य को दी सूचना-
”हे प्रभो?
कौन नहीं जानता है
पुष्पक विमान को-
देवों की अमोल निधि,
गौरव कुबेर का,
उसी को कोई दैन्य-
राज लिए, हमको
चुनौती सा देता हुआ
भागा चला जा रहा है।
उचित न होगा यह कि
हमारे राज्य भीतर से
कोई चोरी करके
इस ढंग से निकल जाय।
सूर्यदेव क्रोधित हो
बोल उठे,
जाओ, सूचना दो
समस्त अधिकारियों को
पुष्पक विमान सहित
उस तस्कर को रोक लो।
पुष्पक विमान जब
गतिशील होता है
गति अवरुद्ध कभी
होती नहीं उसकी।
तभी रुक सकता है वह,
उच्चारण होवे जब
धनेश्वर के मंत्र का
सामने उसके।
जाओ अविलम्ब करो
इसकी व्यवस्था।
पहरेदार ने समस्त
अधिकारियों को
इसकी दी सूचना,
और लोग दौड़ पड़े
पुष्पक विमान को
रोक लेने के लिए,
धनपति के मंत्रोच्चार
का भी प्रबंध हुआ।
एक गया विमान
आश्चर्य हुआ कवि को
और घबड़ाया
यह देख कर कि
उसे जेल खाने बीच
डालने को
शक्ति शाली दिनपति के
सिपाही घेरे खड़े हैं।
बेबसी में पडऋ कर के कवि ने
मंजूर किया करावास।
अकस्मात् कैसी यह
मुसीबत यहाँ आ गयी।
सोचता था
शीघ्र पहुँचूगा शून्य लोक में,
और कार्य अपना
समाप्त कर पूरा
मानवों के लोक में
सुनाऊँगा अनुभव।
किन्तु कांच के समान
सपना सब मेरा
चूर चूर हो गया।
अब जो अँधेरा
घिर आया है अचानक
कब तक और घना
होता चला जायेगा
और कब रोशनी के सामने
दम तोड़ आँखों से
ओझल हो जायेगा-
मग्न होकर
इसी भाव की तरंग में
कवि का क्षण एक-एक
बीतता था
युग के समान
असहनीय होकर।
आता था सवेरा,
फिर शाम आती,
रात आती-
चक्कर चला करता था
हर एक फेरे में
ऊब और बेकली का
वरदान देकर
बढ़ती ही जा रही थी
उसकी निराशा।
और, जब आशा
साथ छोड़ कर
दूर चली जा रही थी
छोटे से झरोखे से
देख पड़ी सुन्दरी, नवयुवती एक
चेहरे पर जिसके
आश्वासन था बरसता।
आंखों में भरोसा
लावणय मुसकान में था,
लता से भी कोमल शरीर पर
लाल साड़ी शोभित थी।
गुलाब कली सी
कमनीय बाला वह
कोयल की वाणी
मिठास भरी बोल उठी-
”कौन तुम बद्ध
यहां कारागार मध्य हो?
पुष्पक विमान
तुम लेकर
क्यों भागते थे,
देखने में दानव तो
जान पड़ते नहीं,
किन्तु सब लोग तुम्हें
दानव बताते हैं।
मुझको बताओ सत्य सत्य
तुम कौन हो?“
”देवि! मैं मानव हूँ
दानव जो समझते हैं
धोखा वे खा रहे हैं
मानवों में कवि हूँ मैं
अपने बन्धुओं की
देख काम, क्रोध, लोभमयी वृत्तियां
खोजने को निकला मैं
कोई मार्ग
जिससे मिल जाये उन्हें शांति।
पहले गया मैं पुष्प-नगर में
उसके बाद
वरुण लोक-अग्निलोक को भी गया।
अग्निलोक से मैं गया
मारुत के लोक को
मारुत ने मुझ पर प्रसन्न हो
मेरे लिए
पुष्पक विमान मंगवा दिया।
उस पर आरूढ़ होकर
जा रहा था शून्य लोक
तब तक यह आ गयी
विपत्ति मेरे सिर पर।
तुम हो पधारी तो
प्रकाश यहाँ आया कुछ
पहले तो यहाँ
अंधकार धुआँ छाया था।“
”मानव कवि!
जान गयी मैं कि
भूल हुई पहिचानने में
धोखा हुआ उनको
जिन्होंने तुम्हें दैत्य जान
कैद किया व्यर्थ ही।
इस अन्याय का
निवारण करूँगी मैं
छुटकारा तुम्हें देकर ही
शांति पा सकूँगी मैं।“
”किन्तु देवि!
वाणी में तुम्हारी
अधिकार जो भरा हुआ है
उससे क्या मान लूँ मैं
तुम्हीं इस लोक की हो मालकिन!
तो क्या दिवाकर का
यहाँ अधिकार
कुछ भी नहीं है?
क्या वे इस लोक के
नहीं है एक छत्रपति?
संदेह यह दूर करो
कृपा कर मेरा तुम।“
”हे कवि! तुम
सत्य कहते हो
सूर्यदेव ही मालिक
इस लोक के हैं।
किन्तु सूर्यदेव को
मैं रखती हूँ
अपने कलेजे में।
और इसी प्यार के आधार
अधिकार मेरा इतना तो
है अवश्य ही कि
जिस अन्याय से
सूर्यदेव की अकीर्ति सम्भव हो
उसका निवारण
मैं पूछे बिना किसी से
आप कर सकती हूँ।
खोलती हूँ ताला मैं
आओ तुम बाहर।“
यह कह सुकुमारी ने
खोल दिया ताला और काली कोठरी में से
निकला कवि बाहर।
श्रद्धा से गद्गद हो
उसने प्रणाम किया देवी को
और पूछा-
”माता! शुभ नाम क्या है आपका?“
”ऊषा है मेरा नाम
मैं ही सब जीवों की
आशा का स्रोत हूँ।
चलो अब पुष्पक विमान में
बैठ कर तुम्हें जहाँ जाना है
वहाँ को प्रस्थान करो।“
”किन्तु देवि! सूर्य देव को तो
वह ज्ञात हो जाय कि
कैदी मुक्त हो गया
और उसे जेल में डालना
सरासर अन्याय था।“
”हे कवि!
भावुकता में पड़ते क्यों इतना?
चलो, हुई देरी है जितनी,
महान दुख मिलने में भला
वही कौन कम है,
अब तुम तेजी से
कार्य करो अपना।“
यह कह उषा ने लिया
कविवर को साथ और
पुष्पक विमान पास
पहुंचाया उसको।
कवि ने प्रवेश किया यान में
और किया गतिशील उसको।
बार बार ऊषा को प्रणाम कर
उड़ चला वह व्योम मार्ग में।
बीते दिन रात कई
पुष्पक विमान उड़ता ही चला
आया तब वह समय
जब मिली एक झलक
अभीष्ट शून्य लोक की।
शीघ्र ही यान ने प्रवेश वहाँ,
और उस लोक के अधीश्वर
श्री विष्णु और लक्ष्मी-
विश्राम मग्न थे हुए
अचानक उन्हें मिली
जागरण प्रेरणा
और हुआ अनुभव कि
कोई व्यक्ति बाहर से
मिलने को आया है।
इसी बीच द्वारपाल
आया और बोला-
”देव, मर्त्यलोक से
आया एक मानव कवि
दर्शन की चाह ले।“
आज्ञा हुई-”लाओ उसे शीघ्र ही।“
द्वारपाल गया और लौटा जब
उसके ही पीछे चल
कवि ने प्रवेश पाया
श्री विष्णु के भवन में।
दिव्य ज्योति आभा से
भवन था प्रकाशित वह
जिसमें प्रिया के साथ
प्रभु थे विराज रहे शेष पर।
”कौन तुम,
क्या अभिप्राय है तुम्हारा
यहाँ आने का
यह तो है शून्य लोक
यहाँ वही मानव
आ सकता है
जिसकी सब इच्छाएं पूर्ण हों।
शून्य हो गये हों भाव,
शून्य सब वासना
शून्य ही प्रयोजन हो
शून्य कर्म धारण।
कौन अभिलाषा तुम्हें
मेरे पास लायी है?
”भगवान कौन परिचय दूँ
अपना मैं आप से
आप ही का भक्त मैं
मानव कवि एक हूँ।
वरुण लोक, अग्नि लोक और
लोक मारुत का
पार कर
आया हूँ आप की शरण में।
मानव दुर्बलता का
किया मैंने प्रायश्चित
पानी में गलाया
तन आग में तपाया
मारुत के झोंके बहुतेरे भी
झेल लिए
आज पानी
रूप ले ले
भीषण से भीषण,
ओला बन आये
बर्फ, पाला कहलाये
तो भी
मेरी आँख देखेगी
उसमें जिस रूप को
उसे सिद्ध मैंने किया
अपना बना लिया।
आग कभी धूप सी
मुलायम बन जाती है,
कभी जल चूल्हे में
भोजन पकाती है
कभी बड़े नगरों को
जंगलों को
ज्वालामय, फैले हुए मुँह में
अनायास निगल जाती है।
इन अलग रूपों में आग को
मेरी आंखे देखेगी
तत्व जो, उसे मैंने
अपने तन मन में रमा लिया
प्राणों में धंसा लिया।
मारुत कभी हल्की हवा का;
कभी ठंडे या कि गर्म झोंकों का
और कभी
प्रलयंकारी महा उग्र आंधी का
रूप धर
आता है जीवन सम्पर्क में
मेरी आंख
इन सब रूपों में
पायेगी जिसको
हर हालत में उपस्थित
उसे मैंने समझ लिया
उससे प्रेम लगा लिया।
दुनिया के लोगों को
अलग देख पड़ते हैं,
पानी, आग, मारुत के
रूप जो अनेक हैं।
किन्तु मैंने
इतना पहचान लिया
पानी वही, आग वही,
मारुत पराग वही
मारुत ही कभी आग बनता है
और आग पानी की शक्ल में
कभी चली आती है सामने
मैं अब इनमें से किसी से
कभी धोखा खाता नहीं।
इतनी तैयारी कर
आया हूँ, अब इस लोक में
यह जान लेने को कि
मिट्टी, पानी, आग, हवा
अपना गंवा के रूप
शून्य ही में
सब मिल जाते हैं।
कोई शून्य को ही
आसमान बतलाता है,
कोई निराकार ब्रह्म
उसमें ही पाता है,
कोई उसे नारायण लोक
कह लेता है।
जो हो, सभी तत्व यहाँ
आकर के शान्ति से
विश्राम देते हैं
अपने ही भीतर के
प्राण रूप तत्व को
जिसमें विश्राम
स्वयं उनको भी मिलता है
यह सब जानने को
यहाँ चला आया हूँ।
प्रभो! अब आप की कृपा का
एक कण भी जो मिल जाय,
सहारा महान पाकर
कृतकृत्य होऊ मैं
मुक्त मेरा मानव समाज भी हो
कष्टों के जाल से!“
विष्णु बोले,
”वत्स, तुम साहसी हो, उद्यमी हो
इतनी दूर यात्रा की,
संकट अपार झेले
लक्ष्य यह लेकर कि
मानव समाज सुख पाये
देख कर तुम्हारा कार्य
बहुत प्रसन्न हूँ मैं।
इससे दो बातें कर लेने को तुमसे
इच्छा हो रही है, सुनो।
कहता नहीं हूँ अधिक
करके दिखाता हूँ,
देख लो शयन मेरा
शेष पर है सर्वदा।
सुत, दारा, धन सम्पत्ति
जो कुछ तुम्हारे पास होवे
उसमें लगा दो आग
अंतर विश्वास की,
जिससे जल जाय सब
और शेष रह जाय राख मात्र,
उस पर ही जीवन विश्राम
करो आश्रित।
ममता और अहंकार के-
सारे साधनों में
आग जो लगायी नहीं जायगी,
शेष कहाँ मिलेगा?
मानव के मन का फूल
कैसे खिल पायेगा?
समाचार मिलते हैं
मानवों के लोक के
चारों ओर चोरियों की
बाढ़ चली आ रही है।
पद प्राप्ति, यश प्राप्ति
के लिए अनर्थ
करने को लोग तत्पर हैं।
मानव यदि चाहता है
सोवे नींद सुख की
इन सब वस्तुओं को
मन की अग्नि ज्वाला में
भस्म करे
और तब राख में ही
खोज करे रस की।
मानव जो मिट्टी
अपनी पीठ पर
लादे चला जा रहा है,
सावधान होकर
उस बोझ को उतार दे
नहीं तो, गिरेगा वह
खाकर के ठोकर
बोझ की अधिकता से
रीढ़ हड्डी टूटेगी।
थोड़े में, यही मेरी शिक्षा है,
इसके अनुसार ही
मानव व्यवहार करे।“
कवि ने कहा,
”देव, सिर माथे मैं लेता हूँ,
शिक्षा यह आप की।
किन्तु एक और भी निवेदन है
आप से।
वरुण, अग्नि, मारुत सब से ही
को मैंने यह प्रार्थना है
सम्मिलित भाव से
सफलता के चाव से
मानव के जीवन में
अपना अंश दान दें।
पृथ्वी का, वरुण, अग्नि मारुत का
तत्व उतना ही मिले
मानव को
जितने से देह, मन और बुद्धि में
विकार आये नहीं।
और काम, क्रोध, लोभ को
न मिले अवसर
मानव समाज को
वर्षों में बांटने का।
वर्गहीन मानव समाज
जब होगा तभी
युद्धों के विष से
यह विश्व बच पायेगा।
पृथ्वी, वरुण, अग्नि और मारुत
के तत्व का
अनमेल तभी रुक सकता है,
जब आप इनको दें प्रेरणा।
मुझ पर यदि आपकी
प्रसन्नता है,
मानव के विकास अभिप्राय से
यह कार्य करने की कृपा करें।
कृपा मनुष्य को
मिलेगी यदि आपकी
पंचशील के प्रचार में
वह लग जायगा।
उसकी समस्याएँ
हल होंगी आपही।
शस्त्र युग नष्ट होगा
शांति युग आयेगा
मानव की बुद्धि में भी
स्थिरता आ जायेगी
मरता हुआ मर्त्यलोक
जिन्दा हो जायेगा।
हरा भरा होकर जग
आकर्षण भर देगा
देवों के चित्त में।“
विष्णु बोले,
”हे कवि! तुम्हारी यह प्रार्थना
प्रशंसनीय है।
जाओ तुम होकर सन्तुष्ट उसे
स्वीकृत मैं देता हूँ
आशीर्वाद मेरा
हमेशा रहेगा तुम्हारे साथ।“
प्रेममयी वाणी यह सुन कर
कवि को संतोष हुआ
और बारम्बार कर देवाधिदेव-
विष्णु को प्रणाम
वह पुष्पक विमान में
बैठ कर
पुष्पनगर की ओर
उड़ चला उमंग से