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ग्यारह / आह्वान / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

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गुलशन में फूल कितने रंगों के खिल गए हैं
कोई है उजला-नीला-लाल-पीला-काला
क्यारी है एक पानी सबको पीला के पाला
माली है एक मलयज साँसों में मिल गए हैं
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आई बहार जब-जब कुछ रंग नया आया
फूलों पे होके मोहित भंवरों ने गीत गया
टिटिली तरह-तरह की रौंनक अलगा-अलग है
सब फूल एक चमन के, सोभा अलग-अलग है
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भारत के दिल में दुनिया की मझनवे वसी हैं
हिन्दू हो याकि मुस्लिम, मझाब तो एक सी हैं
ईमान से कहो तो है कौन देश ऐसा
जिसमें हो मिलके रहते इस्लाम और ईसा
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रे! बदनसीब किसने मजहब की कैद डाली
दिल पर छुरी चलाकर किसने जुबान काढ़ी
सब जायेगी तो जाये पर बचे बस मूँछ-दाढ़ी
क्या फर्क हममें-तुममें मजहब जो बैर काली
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मजहब मेरा वतन है, भाई हैं देश वासी
भगवान भी वतन है, अल्लाह भी वतन हैं
काबा मेरा वतन है, काशी मेरा वतन है
जन्नत मेरा वतन है, ‘हैवन’ मेरा वतन है
उस स्वर्ग से भी ऊँचा मेरा प्रिये वतन है
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विज्ञान की गाड़ी पे अब वो मजहब नहीं चलेगी
अल्लाह नहीं चलेगा, जन्नत नहीं चलेगी
जन्नत बनेगी धरती! अल्लाह आदमी हैं
अल्लाह को बनाने बाला भी कोई आदमी है